भारतीय प्रेस और प्रेस अधिनियमों का इतिहास और विकास History And Development Of Indian Press And Press Acts
भारत का पहला समाचार-पत्र जेम्स आगस्टस हिक्की ने 1780 में प्रकाशित किया, जिसका नाम था द बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर। किंतु सरकार के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने के कारण 1782 में इसका मुद्रणालय जब्त गया। जैसे- द बंगाल जर्नल, कलकत्ता क्रॉनिकल, मद्रास कुरियर तथा बाम्बे हैराल्ड इत्यादि। अंग्रेज अधिकारी इस बात से भयभीत थे कि यदि ये समाचार-पत्र लंदन पहुंच गये तो उनके काले कारनामों का भंडाफोड़ हो जायेगा। इसलिये उन्होंने प्रेस के प्रति दमन की नीति अपनाने का निश्चय किया।
समाचार पत्रों का पत्रेक्षण अघिनियम, 1799 The censorship of press act, 1799
फ्रांसीसी आक्रमण के भय से लार्ड वेलेजली ने इसे लागू किया तथा सभी समाचार-पत्रों पर सेंसर लगा दिया। इस अधिनियम द्वारा सभी समाचार-पत्रों के लिये आवश्यक कर दिया गया कि वो अपने स्वामी, संपादक और मुद्रक का नाम स्पष्ट रूप से समाचार-पत्र में अंकित करें। इसके अतिरिक्त समाचार पत्रों को प्रकाशन के पूर्व सरकार के सचिव के पास पूर्व-पत्रेक्षण (Precensorship) के लिये समाचार-पत्रों को भेजना अनिवार्य बना दिया गया।
लार्ड हेस्टिंग्स के उदारवादी और प्रगतिशील रवैये के कारण इन नियमों में ढील दे दी गयी। 1818 में समाचार-पत्रों का पूर्व-पत्रेक्षण बंद कर दिया गया।
अनुज्ञप्ति नियम, 1823 Licensing Regulation, 1823
प्रतिक्रियावादी गवर्नर-जनरल जॉन एडम्स ने 1823 में इन नियमों को आरोपित किया। इस नियम के अनुसार, बिना अनुज्ञप्ति लिये प्रेस की स्थापना या उसका उपयोग दंडनीय अपराध माना गया। ये नियम, मुख्यतः उन समाचार-पत्रों के विरुद्ध आरोपित किये गये थे, जो या तो भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होते थे या जिनके स्वामी भारतीय थे। इस नियम द्वारा राजा राममोहन राय की पत्रिका मिरात-उल-अखबार का प्रकाशन बंद करना पड़ा।
1835 का प्रेस अधिनियम या मेटकॉफ अधिनियम Press Act of 1835
कार्यवाहक गवर्नर-जनरल चार्ल्स मेटकॉफ ने भारतीय प्रेस के प्रति उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया तथा 1823 के कुत्सित अनुज्ञप्ति नियमों को रद्द कर दिया। इस प्रयास के कारण मेटकॉफ को भारतीय समाचार-पत्रों के मुक्तिदाता की संज्ञा दी गयी।
1835 के इस नये प्रेस अधिनियम के अनुसार, प्रकाशक या मुद्रक को केवल प्रकाशन के स्थान की निश्चित सूचना ही सरकार को देनी थी और वह आसानी से अपना कार्य कर सकता था। यह कानून 1856 तक चलता रहा तथा इस अवधि में देश में समाचार-पत्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी।
अनुज्ञप्ति अघिनियम, 1857 Licensing Act, 1857
1857 के विद्रोह से उत्पन्न हुई आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिये 1857 के अनुज्ञप्ति अधिनियम से अनुज्ञप्ति व्यवस्था पुनः लागू कर दी गयी। इस अधिनियम के तहत बिना अनुज्ञप्ति के मुद्रणालय रखना और उसका प्रयोग करना अवैध घोषित कर दिया गया। सरकार की यह अधिकार दे दिया गया कि वह किसी समाचार-पत्र को किसी समय अनुज्ञप्ति दे सकती थी या उसकी अनुज्ञप्ति को रद्द कर सकती थी। अधिनियम द्वारा सरकार को यह अधिकार भी दिया गया कि वह समाचार-पत्र के साथ ही किसी पुस्तक, पत्रिका, जर्नल या अन्य प्रकाशित सामग्री पर प्रतिबंध लगा सकती थी। यद्यपि यह एक संकटकालीन अधिनियम था तथा इसकी अवधि केवल एक वर्ष थी।
पंजीकरण अधिनियम, 1867 Registration Act,1867
इस अधिनियम द्वारा मेटकाफ के अधिनियम को परिवर्तित कर दिया गे। इस अधिनियम का उद्देश्य, प्रेस एवं समाचार-पत्रों पर प्रतिबंध लगाना नहीं अपितु उन्हें नियमित करना था। अब यह आवश्यक बना दिया कि किसी भी मुद्रित सामग्री पर मुद्रक प्रकाशक तथा मुद्रण स्थान के नाम का उल्लेख करना अनिवार्य होगा। इसके अतिरिक्त प्रकाशन के एक माह के अंदर पुस्तक की एक निःशुल्क प्रति स्थानीय सरकार को देना आवश्यक था।
प्रेस की स्वतंत्रता को बचाने के लिये प्रारंभिक राष्ट्रवादियों द्वारा किये गये प्रयास
19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही नागरिक स्वतंत्रताओं की रक्षा का मुद्दा, जिनमें प्रेस की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे प्रमुख था, राष्ट्रवादियों के घोषणा-पत्र में सबसे प्रमुख स्थान बनाये हुये था। 1824 में राजा राममोहन राय ने उस अधिनियम की तीखी आलोचना की, जिसके द्वारा प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया था।
सरकार ने प्रेस के दमन के लिये विभिन्न कानूनों का सहारा लिया। उदाहरणार्थ- भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा-124ए के द्वारा सरकार की यह अधिकार दिया गया कि वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों में असंतोष उत्पन्न कर रहा हो या उन्हें सरकार के विरुद्ध भड़का रहा हो, उसे गिरफ्तार कर सरकार तीन वर्ष के लिये कारावास में डाल सकती है या देश से निवासित कर सकती है। लेकिन निर्भीक राष्ट्रवादी पत्रकार, सरकार के इन प्रयासों से लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुये तथा उपनिवेशी शासन के विरुद्ध उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। सरकार ने समाचार-पत्रों को सरकारी नीति के पक्ष में लिखने हेतु प्रोत्साहित किया तथा उन्हें लालच दिया, जबकि वे समाचार-पत्र जो सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की भर्त्सना करते थे, उनके प्रति सरकार ने शत्रुतापूर्ण नीति अपनायी। इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी पत्रकारों के सम्मुख यह एक चुनौती भरा कार्य था कि वे उपनिवेशी शासन के प्रयासों एवं षड़यंत्रों को सार्वजनिक करें तथा भारतीयों को वास्तविकता से अवगत करायें। इन परिस्थितियों में पत्रकारों, स्पष्टवादिता, निष्पक्षता, निर्भीकता एवं विद्वता जैसे गुणों का होना अपरिहार्य था।
राष्ट्रीय आंदोलन, प्रारंभ से ही प्रेस की स्वतंत्रता का पक्षधर था। लार्ड लिटन के शासनकाल में उसकी प्रतिक्रियावादी नीतियों एवं अकाल (1876-77) पीड़ितों के प्रति उसके अमानवीय रवैये के कारण भारतीय समाचार-पत्र सरकार के घोर आलोचक बन गये। फलतः सरकार ने 1878 में देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (vernacular press Act) द्वारा भारतीय प्रेस को कुचल देने का प्रयास किया।
देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम, 1878 The vernacular Press Act, 1878
1857 की महान क्रांति का एक प्रमुख परिणाम था- शासक और शासितों के बीच संबंधों में कटुता। 1858 के पश्चात यूरोपीय प्रेस ने सरकार की नीतियों का समर्थन किया तथा विवादास्पद मामलों में सरकारी पक्ष का साथ दिया किंतु देशी भाषाओं के प्रेस सरकारी नीतियों के तीव्र आलोचक थे। लार्ड लिटन की प्रतिक्रियावादी नीतियों के कारण भारतीयों में सरकार के विरुद्ध तीव्र असंतोष था। 1876-77 में भीषण अकाल से एक ओर जहां लाखों लोग मौत के मुंह से समा गये, वहीं दूसरी ओर जनवरी 1877 में दिल्ली में भव्य दरबार का आयोजन किया गया। इन सभी कारणों से भारतीयों में उपनिवेशी शासन के विरुद्ध घृणा की भावना निरंतर बढ़ रही थी। दूसरी ओर लार्ड लिटन ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीयों में इस असंतोष का कारण मैकाले एवं मैटकॉफ की गलत नीतियां थीं। फलतः उसने भारतीयों की भावनाओं की दबाने का निर्णय लिया।
1878 के देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम को बनाने का उद्देश्य, भारतीय भाषाओं के समाचार-पत्रों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित करना तथा राजद्रोही लेखों को दबाना एवं ऐसे प्रयास के लिये समाचार-पत्रों को दडित करना था। इस अधिनियम के मुख्य प्रावधान निम्नानुसार थे-
- जिला दण्डनायकों (District magistrate) को यह अधिकार दिया गया कि वे स्थानीय सरकार की आज्ञा से किसी भी भारतीय भाषा के समाचार-पत्र के प्रकाशक या मुद्रक को बुलाकर बंधन-पत्र (Bond) पर हस्ताक्षर करने के लिये कह सकते हैं। इस बंधन-पत्र में यह प्रावधान था कि ये प्रकाशक या मुद्रक ऐसी कोई भी सामग्री प्रकाशित नहीं करेंगे, जिससे सरकार के विरुद्ध असंतोष भड़केगा अथवा सम्राज्ञी की प्रजा के विभिन्न जाती, धर्म और वर्ण के लोगों के मध्य आपसी वैमनस्य बढ़े।
- दण्डनायक का निर्णय अंतिम होगा तथा उसके विरुद्ध किसी प्रकार की अपील की अनुमति नहीं होगी।
- देशी भाषा का कोई समाचार-पत्र यदि इस अधिनियम की कार्यवाही से बचना चाहे तो उसे पहले से अपने पत्र की एक प्रमाण प्रति (Proof.copy) सरकारी पत्रेक्षण को देनी होगी।
इस अधिनियम को ‘मुंह बंद करने वाले अधिनियम’ की संज्ञा दी गयी। इस अधिनियम का सबसे घृणित पक्ष यह था कि-
- इसके द्वारा अंग्रेजी एवं देशी भाषा के समाचार-पत्रों के मध्य भेदभाव किया गया था; एवं
- इसमें अपील करने का कोई अधिकार नहीं था।
इस अधिनियम के तहत भारत मिहिर, सोम प्रकाश, सहचर, ढाका प्रकाश तथा अनेक अन्य समाचार पत्रों के विरुद्ध मामले दर्ज किये गये।
इस अधिनियम की कार्यवाही से बचने के लिये अमृत बाजार पत्रिका रातोंरात अंग्रेजी समाचार पत्र में परिवर्तित हो गयी।
कालांतर में (सितम्बर 1878 से), पूर्ण पत्रेक्षण (Pre-censorship) की धारा हटा दी गयी तथा उसके स्थान पर प्रेस आयुक्त की नियुक्ति की गयी, जिसका कार्य समाचार-पत्रों को विश्वसनीय एवं सही जानकारी उपलब्ध कराना था।
इस अधिनियम के विरुद्ध सारे देश में तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की गयी तथा अंततः 1882 में उदारवादी गवर्नर-जनरल लार्ड रिपन ने इसे रद्द कर दिया।
1883 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी देश के ऐसे प्रथम पत्रकार बने, जिन्हें कारावास की सजा दी गयी।
श्री बनर्जी ने द बंगाली के आलोचनात्मक संपादकीय में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर, एक निर्णय में बंगाली समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया तथा उनकी निंदा की।
प्रेस की स्वतंत्रता के लिये किये जा रहे राष्ट्रवादी प्रयासों में बाल गंगाधर तिलक की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। तिलक ने 1893 में गणपति उत्सव एवं 1896 में शिवाजी उत्सव प्रारंभ करके लोगों में देशप्रेम की भावना जगाने का प्रयास किया। उन्होंने अपने पत्रों मराठा एवं केसरी के द्वारा भी अपने प्रयासों को आगे बढ़ाया। वे प्रथम कांग्रेसी थे, जिन्होंने समाज के मध्यवर्गीय लोगों, किसानों, शिल्पकारों, दस्तकारों, कारीगरों तथा मजदूरों को कंग्रेस से जोड़ने का प्रयास किया। 1896 में कपास पर उत्पाद शुल्क आरोपित करने के विरोध में उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का अभियान चलाया। 1896-97 में उन्होंने महाराष्ट्र में ही ‘कर ना अदायगी’ अभियान चलाया तथा किसानों से आग्रह किया कि फसल बर्बाद हो जाने की स्थिति में वे सरकार को लगान न अदा करें।
1897 में पूना में भयंकर प्लेग फैला। यद्यपि तिलक, प्लेग से निपटने के सरकारी प्रयासों के समर्थक थे किंतु इस संबंध में सरकार द्वारा उठाये गये कदमों का लोगों ने तीव्र विरोध किया। इसी संबंध में पूना में प्लेग समिति के अध्यक्ष की चापेकर बंधुओं ने गोली मारकर हत्या कर दी। सरकार की अकाल, मुद्रा एवं कर नीतियों ने भी लोगों में तीव्र असंतोष को जन्म दिया।
सरकार, लोगों में उभरती इन विद्रोही भावनाओं तथा भारतीय प्रेस के सरकार विरोधी रवैये से अत्यंत क्षुब्ध थी तथा इनके दमन के लिये उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी। अतः सरकार ने जनता के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये तिलक को अपराधी घोषित करने का निश्चय किया। तत्पश्चात तिलक द्वारा केसरी में शिवाजी की महिमा का गुणगान करने के लिये एक कविता लिखने तथा शिवाजी महोत्सव के समय तिलक द्वारा एक भाषण में शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या को सही ठहराने के आधार पर सरकार ने, रैंड की हत्या के पश्चात तिलक को गिरफ्तार कर लिया। सरकार ने उन पर आरोप लगाया कि वे शिवाजी द्वारा अफजल खां की हत्या की घटना को भारतीयों द्वारा ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या की घटना के रूप में चित्रित कर रहे हैं। तिलक को इस अपराध का दोषी ठहराकर उन्हें 18 माह के सश्रम कारावास की सजा दी गयी।
इसके पश्चात बम्बई प्रेसीडेंसी के कई अन्य संपादकों को भी विभिन्न आरोपों में गिरफ्तार किया गया तथा उन्हें कठोर सजायें दी गयीं। सरकार की इन कायरतापूर्ण कार्रवाइयों की पूरे देश में निंदा की गयी। गिरफ्तारी के पश्चात बाल गंगाधर तिलक रातोंरात राष्ट्रीय नायक बन गये तथा उन्हें लोकमान्य (लोगों द्वारा आदरणीय एवं सम्माननीय) की उपाधि से विभूषित किया गया। पूरे देश में तिलक की प्रसिद्धि फैल गयी।
1898 में एक अधिनियम द्वारा दण्ड संहिता की धारा 124-ए को पुनः स्थापित और विस्तृत किया गया और उसमें एक नयी धारा 153-ए जोड़ दी गयी। इस धारा में यह प्रावधान था कि किसी व्यक्ति द्वारा भारत सरकार की अवमानना करने या लोगों को राज्य के विरुद्ध कार्य करने की प्रेरणा देने या समाज के विभिन्न वर्गों के बीच घृणा फैलाने की कार्यवाही को दण्डनीय अपराध माना जायेगा। इस नियम के विरुद्ध भी पूरे राष्ट्र में व्यापक प्रदर्शन किये गये। स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन तथा क्रांतिकारी राष्ट्रवाद के उदय के समय भी भारतीयों पर अनेक दमनकारी कानून आरोपित किये गये।
समाचार पत्र अधिनियम, 1908 The News Paper Act, 1908
इस अधिनियम का उद्देश्य, उग्रवादी राष्ट्रवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाना था। अधिनियम द्वारा दण्डनायकों को यह अधिकार दिया कि वे ऐसे किसी समाचार-पत्र की सम्पति व मुद्रणालय को जब्त कर सकते हैं जिसमें प्रकाशित सामग्री से लोगों को हिंसा करने या हत्या करने की प्रेरणा मिलती हो।
भारतीय समाचार पत्र अधिनियम, 1910 The Indian Press Act, 1910
इस अधिनियम द्वारा लार्ड लिटन के 1878 के अधिनियम के सभी घिनौने प्रावधानों को पुनर्जीवित कर दिया गया। इस अधिनियम के अनुसार, स्थानीय सरकारें किसी समाचार पत्र के प्रकाशक या मुद्रणालय के स्वामी से पंजीकरण जमानत (Registration security) मांग सकती थीं। इस पंजीकरण जमानत की न्यूनतम राशि 500 रुपये व अधिकतम राशि 2000 रुपये तय की गयी। इसके अतिरिक्त सरकार को जमानत जब्त करने एवं पंजीकरण रद्द करने का अधिकार भी दिया गया। सरकार को पुनः पंजीकरण के लिये न्यूनतम 1000 रुपये और अधिकतम 10 हजार रुपये मांगने का अधिकार था। यदि समाचार-पत्र पुनः आपत्तिजनक सामग्री प्रकाशित करे तो उसका पंजीकरण रद्द कर उसकी सभी सम्पत्तियों तथा उसके मुद्रणालय को जब्त करने का अधिकार भी सरकार को दिया गया।
एक उग्रवादी राष्ट्रीयवादी नेता की छवि के कारण बल गंगाधर तिलक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया तथा देश से निर्वासन की सजा देकर 6 वर्ष के लिये मांडले जेल (रंगून) भेज दिया गया। पूरे राष्ट्र में तिलक की गिरफ्तारी एवं निर्वासन का विरोध हुआ तथा सरकार के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन किये गये। बंबई में कपड़ा मिल मजदूरों तथा रेलवे कारखानों के मजदूरों ने हड़ताल कर दी तथा सरकार के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये। रूस के साम्यवादी नेता लेनिन ने मजदूरों की राजनीतिक प्रक्रिया में भागेदारी का एक शुभ संकेत है।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान एवं उसके पश्चात
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सरकारी आलोचना को रोकने तथा राजनितिक प्रदर्शनों का दमन करने के लिये भारतीयों पर अनेक कानून लागू कर दिये गये। 1921 में, तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता में प्रेस समिति ने सरकार से 1908 एवं 1910 के अधिनियमों को रद्द करने की सिफारिश की। तत्पश्चात इन अधिनियमों को रद्द कर दिया गया।
भारतीय समाचार-पत्र (संकटकालीन स्थितियां) अधिनियम, 1931 Indian Press (emergency powers) Act, 1931
इस अधिनियम द्वारा प्रांतीय सरकारों को सविनय अवज्ञा आंदोलन को दबाने के लिये अत्यधिक शक्तियां दे दी गयीं। 1932 में इस अधिनियम का विस्तार करके इसे आपराधिक संशोधित अधिनियम (Criminal Amendment Act) बना दिया गया। इसमें वे सभी गतिविधियाँ सम्मिलित कर दी गयीं जिनसे सरकार की प्रभुसत्ता को हानि पहुंचायी जा सकती थी।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान
भारत रक्षा नियमों के अंतर्गत, भारतीय प्रेस पर पूर्व-पत्रेक्षण (Pre-censorship) की शर्त थोप दी गयी तथा समाचार-पत्र (संकटकालीन स्थितियां) अधिनियम एवं कार्यालयीन गोपनीयता कानूनों में संशोधन किया गया।
स्वतंत्रता के पश्चात
समाचार-पत्र जाँच समिति, 1947 Press enquiry committee, 1947
संविधान सभा द्वारा मौलिक अधिकारों के रूप में भारतीय नागरिकों को प्रदत्त विभिन्न अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न भारतीय समाचार-पत्र कानूनों की समीक्षा करने के लिये एक समिति की स्थापना की गर्यो। इस समिति ने निम्न सिफारिशों की-
- 1931 के अधिनियम को रद्द कर दिया जाये।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-ए और 153-ए में परिवर्तन किया जाये।
- समाचार-पत्र और पुस्तकों के पंजीकरण के अधिनियम में संशोधन किया जाये।
- 1931 के देशी राज्य (असंतोष के विरुद्ध) अधिनियम को रद्द किया जाये। एवं
- 1934 के देशी राज्य (रक्षा) अधिनियम को रद्द किया जाये। इत्यादि
James Augustus Hickey in 1780 started The Bengal Gazette or Calcutta General Advertiser, the first newspaper in India, which was seized in 1782 because of its outspoken criticism of the Government.
Later more newspapers/journals came up—The Bengal journal, Calcutta Chronicle, Madras Courier, Bombay Herald. The Company’s officers were worried that these newspapers might reach London and expose their misdeeds. Thus they saw the need for curbs on the press.
Early Regulations:
Censorship of Press Act, 1799:
Lord Wellesley enacted this, anticipating French invasion of India. It imposed almost wartime press restrictions including pre-censorship. These restrictions were relaxed under Lord Hastings, who had progressive views, and in 1818, pre-censorship was dispensed with.
Licensing Regulations, 1823:
The acting governor-general, John Adams, who had reactionary views, enacted these. According to these regulations, starting or using a press without licence was a penal offence. These restrictions were directed chiefly against Indian language newspapers or those edited by Indians. Rammohan Roy’s Mirat-ul-Akbar had to stop publication.
Press Act of 1835 or Metcalfe:
Act Metcalfe governor- general—1835-36) repealed the obnoxious 1823 ordinance and earned the epithet, “liberator of the Indian press”. The new Press Act (1835) required a printer/publisher to give a precise account of premises of a publication and cease functioning, if required by a similar declaration.
The result of a liberal press policy was a rapid growth of newspapers.
Licensing Act, 1857:
Due to the emergency caused by the 1857 revolt, this Act imposed licensing restrictions in addition to the already existing registration procedure laid down by Metcalfe Act and the Government reserved the right to stop publication and circulation of any book, newspaper or printed matter.
Registration Act, 1867:
This replaced Metcalfe’s Act of 1835 and was of a regulatory, not restrictive, nature. As per the Act, (i) every book/newspaper was required to print the name of the printer and the publisher and the place of the publication; and (ii) a copy was to be submitted to the local government within one month of the publication of a book.
Struggle By Early Nationalists To Secure Press Freedom:
Right from the early nineteenth century, defence of civil liberties, including the freedom of the press, had been high on nationalist agenda. As early as 1824, Raja Rammohan Roy had protested against a resolution restricting the freedom of the press.
The early phase of nationalist movement from around 1870 to 1918 focussed more on political propaganda and education, formation and propagation of nationalist ideology and arousing, training, mobilisation and consolidation of public opinion, than on mass agitation or active mobilisation of masses through open meetings.
For this purpose the press proved a crucial tool in the hands of the nationalists. The Indian National Congress in its early days relied solely on the press to propagate its resolutions and proceedings.
Many newspapers emerged during these years under distinguished and fearless journalists. These included Hindu and Swadesamitran under G. Subramaniya Aiyar, The Bengalee under Surendranath Banerjea, Voice of India under Dadabhai Naoroji, Amrita Bazar Patrika under Sisir Kumar Ghosh and Motilal Ghosh, Indian Mirror under N.N. Sen, Kesari (in Marathi) and Maharatta (in English) under Balgangadhar Tilak, Sudharak under Gopal Krishna Gokhale, and Hindustan and Advocate under G.P. Verma.
Other main newspapers included, Tribune and Akbhar-i-am in Punjab, Gujarati, Indu Prakash, Dhyan Prakash and Kal in Bombay and Som Prakash, Banganivasi and Sadharani in Bengal.
These newspapers were not established as profit-making business ventures but were seen as rendering national and public service. In fact, these newspapers had a wide reach and they stimulated a library movement.
Their impact was not limited to cities and towns; these newspapers reached the remote villages, where each news item and editorial would be read and discussed thoroughly in the ‘local libraries’ which would gather around a single newspaper. In this way, these libraries served the purpose of not only political education but also of political participation. In these newspapers, government acts and policies were put to critical scrutiny. They acted as an institution of opposition to the Government.
The Government on its part had enacted many strident laws, such as Section 124 A of the Indian Penal Code which provided that anyone trying to cause disaffection against the British Government in India was to be transported for life or for any term or imprisoned ” upto three years.
But the nationalist-minded journalists had evolved many clever strategems to subvert these legal hurdles. For instance, writings hostile to the Government used to be prefaced with sentiments of loyalty to the Government or critical writings of socialists or Irish nationalists from newspapers in England used to be quoted. This was a difficult task which required an intelligent mix of simplicity with subtlety.
The national movement, from its very beginning, stood for the freedom of press. The Indian newspapers became highly critical of Lord Lytton’s administration especially regarding its inhuman treatment to victims of the famine of 1876-77. The Government struck back with the Vernacular Press Act,. 1878.
Vernacular Press Act, 1878:
A bitter legacy of the 1857 revolt was the racial bitterness between the ruler and the ruled. After 1858, the European press always rallied behind the Government in political controversies while the vernacular press was critical of the Government. There was a strong public opinion against the imperialistic policies of Lytton, compounded by terrible famine (1876-77), on the one hand, and lavish expenditure on the imperial Delhi Durbar, on the other.
The Vernacular Press Act (VPA) was designed to ‘better control’ the vernacular press and effectively punish and repress seditious writing.
The provisions of the Act included the following:
1. The district magistrate was empowered to call upon the printer and publisher of any vernacular newspaper to enter into a bond with the Government undertaking not to cause disaffection against the Government or antipathy between persons of different religions, caste, race through published material; the printer and publisher could also be required to deposit security which could be forfeited if the regulation were contravened, and press equipment could be seized if the offence re-occurred.
2. The magistrate’s action was final and no appeal could be made in a court of law.
3. A vernacular newspaper could get exemption from the operation of the Act by submitting proofs to a government censor.
The Act came to be nicknamed “the gagging Act”. The worst features of this Act were—(i) discriminator between English and vernacular press, (ii) no right of appeal.
Under VPA, proceedings were instituted against Som Prakash, Bharat Mihir, Dacca Prakash and Samachar.
(Incidentally, the Amrita Bazar Patrika turned overnight into an English newspaper to escape the VPA.)
Later, the pre-censorship clause was repealed, and a press commissioner was appointed to supply authentic and accurate news to the press.
There was strong opposition to the Act and finally Ripon repealed it in 1882.
In 1883, Surendranath Banerjea became the first Indian journalist to be imprisoned. In an angry editorial in The Bengalee Banerjea had criticised a judge of Calcutta High Court for being insensitive to the religious sentiments of Bengalis in one of his judgements.
Balgangadhar Tilak is most frequently associated with the nationalist fight for the freedom of press. Tilak had been building up anti-imperialist sentiments among the public through Ganapati festivals (started in 1893), Shivaji festivals (started in 1896) and through his newspapers Kesari and Maharatta.
He was among the first to advocate bringing the lower middle classes, the peasants, artisans and workers into the Congress fold. In 1896, he organised an all Maharashtra campaign for boycott of foreign cloth in opposition to imposition of excise duty on cotton. In 1896-97 he initiated a no-tax campaign in Maharashtra, urging farmers to withhold the payment of revenue if their crop had failed. In 1897, plague occurred in Poona. Although Tilak supported government measures to check plague, there was large-scale popular resentment against heartless and harsh methods such as segregation and house searches.
The popular unrest resulted ‘in murder of the chairman of the Plague Committee in Poona by the Chapekar brothers. The government policies on tariff, currency and famine were also behind this popular resentment.
The Government had been looking for an opportunity to check this militant trend and hostility in the press. They decided to make Tilak a victim to set an example to the public. Tilak was arrested after the murder of Rand on the basis of the publication of a poem, ‘Shivaji’s Utterances’, in Kesari, and of a speech which Tilak had delivered at the Shivaji festival, justifying Afzal Khan’s murder by Shivaji.
Tilak’s defence of Shivaji’s killing of Afzal Khan was portrayed by the prosecution as an incitement to kill British officials. Tilak was held guilty and awarded rigorous imprisonment of eighteen months. Simultaneously several other editors in Bombay presidency were tried and given similar harsh sentences. There were widespread protests against these measures. Overnight Tilak became a national hero and was given the title of “Lokmanya’ (respected and honoured by the people)—a new leader who preached with his deeds.
In 1898, the Government amended Section 124A and added another Section 153A which made it a criminal offence for anyone to bring into contempt the Government of India or to create hatred among different classes, that is, vis-a-vis the English in India. This also led to nation-wide protests. During Swadeshi and Boycott Movements and due to rise of militant nationalist trends, several repressive laws were passed.
Newspaper (Incitement to Offences) Act, 1908:
Aimed against Extremist nationalist activity, the Act empowered the magistrates to confiscate press property which published objectionable material likely to cause incitement to murder/ acts of violence.
Indian Press Act, 1910:
This Act revived the worst features of the VPA—local government was empowered to demand a security at registration from the printer/publisher and forfeit/deregister if it was an offending newspaper, and the printer of a newspaper was required to submit two copies of each issue to local government free of charge.
Tilak as the leader of militant nationalists was tried on charges of sedition and transported to Mandalay (Burma) for six years. This led to countrywide protests. In Bombay, textile workers and railway workshop workers took on the Army in streets and went on strike for days. Lenin hailed this as the entrance of the Indian working class on the political stage.
During And After the First World War:
Defence of India Rules was imposed for repression of political agitation and free public criticism during the First World War. In 1921, on the recommendations of a Press Committee chaired by Tej Bahadur Sapru, the Press Acts of 1908 and 1910 were repealed.
Indian Press (Emergency Powers) Act, 1931:
This Act gave sweeping powers to provincial governments to suppress propaganda for Civil Disobedience Movement. It was further amplified in 1932 to include all activities calculated to undermine government authority. .During The Second World War:
Under the Defence of India Rules, repression was imposed and amendments made in Press Emergency Act and Official Secrets Act. At one time, publication of all news related to Congress activity was declared illegal.
After Independence:
Press Enquiry Committee, 1947:
The Committee was set up to examine press laws in the light of fundamental rights formulated by the Constituent Assembly. It recommended repeal of Indian Emergency Powers Act, 1931, amendments in Press and Registration of Books Act, modifications in Sections 124-A and 156-A of IPC, among others.
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